Muddat

अबकी बरसात में कोई वादें नहीं
मौसम का बदलना कोई इनकीलाब नहीं

तुम से भी छूटेंगी वोह यादें
हाथों पर तराशे लकीरें तो नहीं

भूलने की तो हैं सब बातें
आवाज़ भी यह कोई क़यामत तक नहीं

गुज़र भी गयी वोह मेहकी रातें
माहताब की वफ़ा सेहर तक भी नहीं

3 comments:

  1. That's very beautiful.... conveys the pain, the longing along side the acceptance of the inevitable....

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  2. Thanks. But yeah...the acceptance is only of actions and consequences. I have never believed in anything ever being inevitable. :)

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